जनमानस में राज्यप्रबंध के साथ अन्य क्षेत्रोंमें बदलावकी चाहत पूरी होनाही चाहिये



भारत में सामाजिक, आर्थिक, धाार्मिक, शिक्षा पत्रकारिता, खेल, फिल्म, टीवी तथा अन्य सभी सार्वजनिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप हो गया है। अनेक ऐसे काम जो समाज को ही करना चाहिये वह राज्य प्रबंध पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे में जब कोई राजनीतिक बदलाव होता है तो हर क्षेत्र में उसके प्रभाव देखने को मिलते हैं। देश में गत साठ वर्षों से राजनीतिक धारा के अनुसार ही सभी सार्वजनिक विषयों तथा उनसे संबद्ध संस्थाओं में राज्य का हस्तक्षेप का हस्तक्षेप हुआ तो विचाराधाराओं के अनुसार ही वहां संचालक भी नियुक्त हुए। हमारे देश में तीन प्रकार की राजनीतिक विचाराधारायें हैं-समाजवादी, साम्यवादी और दक्षिणपंथी। उसी के अनुसार रचनाकारों के भी तीन वर्ग बने-प्रगतिशील जनवादी तथा परंपरावादी। अभी तक प्रथम दो विचाराधारायें संयुक्त रूप से भारत की प्रचार, शिक्षा तथा सामाजिक निर्माण में जुटी रहीं हैं पर परिणाम ढाक के तीन पात। उल्टे समाज असमंजस की स्थिाित में है।
पिछले साल हमारे देश में एतिहासिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ। पूरी तरह से दक्षिणपंथी संगठन राजनीतिक परिवर्तन के संवाहक बन गये। भारत में यह कभी अप्रत्याशित लगता था पर हुआ। अब दक्षिणपंथी संगठन अपने प्रतिपक्षी विचाराधाराओं की नीति पर चलते हुए वही कर रहे है जो पहले वह करते रहे थे। प्रतिपक्षी विचाराधारा के विद्वान शाब्दिक विरोध करने के साथ ही हर जगह अपने मौजूदा तत्वों को प्रतिरोध के लिये तत्पर बना रहे हैं।
इस लेखक ने तीनों प्रकार के बुद्धिजीवियों के साथ कभी न कभी बैठक की है। प्रारंभ में दक्षिण पंथ का मस्तिष्क पर प्रभाव था पर श्रीमद्भागवत गीता, चाणक्य नीति, कौटिल्य, मनुस्मृति, भर्तुहरि नीति शतक, विदुर नीति तथा अन्य ग्रंथों पर अंतर्जाल पर लिखते लिखते अपनी विचाराधारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से मिल गयी है। हमें लगता है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में न केवल आत्मिक वरन् भौतिक विषय में भी ढेर सारा ज्ञान है। पश्चिमी अर्थशास्त्र में दर्शन शास्त्र का अध्ययन नहीं होता और हमारे यहां दर्शन शास्त्र में भी अर्थशास्त्र रहता है। दक्षिणपंथ की विचाराधारा से यही सोच हमें प्रथक करती है।
बहरहाल हमारा मानना है कि समाजवाद और साम्यवादियों की विचाराधारा के आधार पर समाज और उसकी संस्थाओं का राज्य प्रबंध की शक्ति से ही चलाया गया था। अब अगर राज्य प्रबंध बदल गया है तो अन्य संस्थाओं में दक्षिणपंथी विद्वानों का नियंत्रण चाहें तो न चाहें तो होगा तो जरूर। अध्यात्मिक विचारधारा के संवाहक होने की दृष्टि से हम भी चाहते हैं कि परिवर्तन हो। आखिर समाज और उसके विचार विमर्श तथा शिक्षण की संस्थाओं में जनमानस के दिमाग में परिवर्तन की वही चाहत तो है जो लोगों ने राज्य प्रबंध में बदलाव कर जाहिर की है।
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